ma Cinemas of India, Videos, Festival Participation & Awards, National Award, Regional Cinema, Independent Cinema, Art House Cinema, Bioscope, Dharavi

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | Next >>
1:1:6 एन ओड टू लॉस्ट लव
2003 | 100 मिनट | बंगाली | सामाजिक

अपनी फिल्म की शूटिंग के पहले दिन, प्रमोद सिनेमेटोग्राफर ‘एम’ की मुलाकात फिल्म की मुख्य अभिनेत्री सुष्मिता और उसकी प्यारी माँ श्रीमती ज्योति भट से कराता है। जैसे-जैसे शूटिंग आगे बढ़ती है, उनके रिश्ते में बदलाव आने लगता है। सुष्मिता ‘एम’ को पसंद करने लगती है और उसे ‘चेता’, जिसका अर्थ केरल में बड़ा भाई होता है, बुलाने लगती है। ‘एम’ जिस फिल्म को निर्देशित करने की योजना बना रहा है, उसमे सुष्मिता को आशा की भूमिका देने का निर्णय करता है। प्रमोद, जो की लड़कियों के साथ इश्कबाज़ी करता और उनपर फिल्में बनाता रहा है, लेकिन अभी तक कुंवारा रहा है, सुष्मिता के प्रति अनोखी और पवित्र भावनाओं का एहसास करता है।

निर्देशक: मधु अम्बट

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार: रति अग्निहोत्री, गुलशन ग्रोवर, अतुल कुलकर्णी , सोनाली कुलकर्णी, मौसमी

27 डाउन
1973 | 115 मिनट | रंगीन | हिंदी | सामाजिक

संजय कला की पढ़ाई करना चाहता है, लेकिन अशक्ते कर देने वाली चोट के कारण सेवानिवृत्त होते, उसके निरंकुश पिता उस पर ज़ोर डालते हैं कि रेलवे की सुरक्षित नौकरी ही उसके लिए सबसे अच्छी है। संजय अंततः ट्रेन कंडक्टर बन जाता है और अपने ऊपर थोपे गए करियर व अपने यांत्रिक और अर्थहीन जीवन से दुखी रहता है। ड्यूटी के दौरान वह शालिनी नामक एक लड़की से टकरा जाता है और उसके प्रति आकर्षण महसूस करता है। उसके पिता को शालिनी में उसकी रुचि के बारे में पता चलता है। वह इसे दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देते हैं और इस तरह संजय के जीवन में एक बार फिर हस्तक्षेप करते हैं। अपने पिता का विरोध ना कर पाने के कारण, संजय का विवाह गाँव की एक लड़की से हो जाता है। संजय के लिए जीवन अब और भी असहनीय हो जाता है। वह आवारागर्दी करना, शराब पीना और वेश्यालयों में जाना शुरू कर देता है। बंधनों को तोड़ते हुए, शालिनी के साथ एक नए जीवन की योजना बनाने का एक आखिरी मौका संजय को मिलता है लेकिन वह मौका वह भी यूं ही गुजर जाने देता है।

निर्देशक | पटकथा: अवतार कृष्ण कौल

कैमरा: एके बीर

सम्पादन: रवि पटनायक

संगीत: भूबेन हरि

कलाकार: राखी, एमके रैना, रेखा सबनिस, माधवी मंजुला और ओम शिवपुरी

पुरस्कार

सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म व सर्वश्रेष्ठ चलचित्रण (सिनेमैटोग्राफी) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1974


फिल्म समारोह में भागीदारी

लोकार्नो फिल्म समारोह का एक्युमेनिकल पुरस्कार

मानहाइम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में डुलकाट पुरस्कारर


आदी शंकराचार्य
1983 | 120 मिनट | संस्कृत | सामाजिक

शताब्दी के अंत तक, हिन्दू चिंतन और दर्शन ने कई अस्पष्टताएँ और असंगतियाँ अर्जित कर ली थीं और उसे शास्त्र-विरोधी सम्प्रदायों व बौद्ध धर्म से चुनौती का सामना करना पड़ा था। केरल में जन्मे शंकराचार्य इसी दौर में धार्मिक दृश्यपटल पर प्रकट हुए। बचपन में उन्हें धार्मिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त हुई और उन्हें प्रचलित कर्मकाण्डों का अभ्यास कराया गया। हालांकि पिता की मृत्यु ने उन्हें जीवन और मृत्यु व देह और आत्मा के बारे में गहन चिंतन करने पर मजबूर कर दिया। अपनी माँ की अनुमति से, शंकराचार्य ने सन्यासी का जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया। सन्यासी का चोगा पहने वह सत्य की खोज में यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा में उन्होंने पूरे उप-महाद्वीप का चक्कर लगाया। शंकराचार्य ने वेदांती दर्शन को आगे बढ़ाया और अद्वैत दर्शन का प्रचार किया, जिसके परिणाम स्वरूप देश के सुदूर कोनों में चार प्रसिद्ध विद्या-केन्द्रों की स्थापना हुई।

निर्देशक: जीवी अय्यर

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार:एसडी बनर्जी, एमवी नारायणा राव, मंजुनाथ भट्ट

पुरस्कार:

राष्ट्रीय पुरस्कार 1984 - सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म, ,

राष्ट्रीय पुरस्कार 1984 - सर्वश्रेष्ठ पटकथा,

राष्ट्रीय पुरस्कार 1984 - सर्वश्रेष्ठ चलचित्रण,

राष्ट्रीय पुरस्कार 1984 - सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी


अन्हे घोड़े दा दान
2011 | 113 मिनट | पंजाबी | ड्रामा

सर्दियों की एक धूमिल सुबह, पंजाब के एक गाँव में एक दलित परिवार, गाँव की सीमा पर बसे उनके समुदाय के एक सदस्यक का घर ढहने की खबर पाकर उठता है। मौन समर्थक पिता, अपने समुदाय के साथ मिलकर पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के लड़ाई में लग जाते हैं। उसी दिन, रिक्शा चालाक उनका पुत्र मेलू, अपनी यूनियन द्वारा की गयी हड़ताल में भागीदारी कर रहा है। चोटिल और अलग-थलग पड़ा हुआ मेलू अपना दिन शान्ति से आराम करता हुआ बिताता है। बाद में वह अपने दोस्तों के साथ जा मिलता है जो उसके हालात का मज़ाक बनाते हैं। हिचकिचाते हुए वह रात में उनके साथ पीने बैठ जाता है, जहां वे ज़िन्दगी के अर्थ पर बहस करते हैं। शहर की सड़कों के चक्कर लगाते वह खुद को खोया हुआ और इस अनिश्चय में पाता है कि कहाँ जाए और क्या करे। गाँव में उसकी मां जिनके खेतों में वह काम करती है, उन ज़मींदारों द्वारा किये गए बर्ताव से खुद को अपमानित महसूस करती है। चन्द्र ग्रहण की रात गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है और गाँव का माहौल तनावपूर्ण है। एक आदमी भिक्षा मांगते घूम रहा है, पिता अपने मित्र के साथ शहर जाने का निश्चय करते हैं जबकि उनकी बेटी दयालो रात में गाँव की सड़कों पर घूम रही है।

निर्देशक: गुरविंदर सिंह

निर्माता: एनएफडीसी

संगीत: कैथरीन लैम्ब
कलाकार: मल्ल सिंह, सैमुअल जॉन, सरबजीत कौर, धरमिंदर कौर, इमानुएल सिंह, कुलविंदर कौर, लाखा सिंह

फिल्म समारोह में भागीदारी

अबू धाबी फिल्म समारोह - स्पेशल जूरी अवार्ड ब्लैक पर्ल ट्रॉफी 2011

राष्ट्रीय पुरस्कार 2011 - सर्वश्रेष्ठ निर्देशन, सर्वश्रेष्ठ चलचित्रण और सर्वश्रेष्ठ पंजाबी फिल्म

वेनिस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह 2012 - ओरिज़ोंटी भाग में प्रदर्शन

बुसान अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह- 2011, दक्षिण कोरिया

अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, रॉटरडैम 2012, नेदरलैंड्स

दक्षिण एशियाई अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह 2011, न्यू यॉर्क , यूएसए

हांगकांग एशियाई फिल्म समारोह 2011, हांगकांग

लन्दन फिल्म समारोह 2011, यूके

पुणे अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह 2012, पुणे


अरण्यक
1994 | 90 मिनट | रंगीन | हिंदी | सामाजिक

जंगल में अपनी पुश्तैनी हवेली में रहते हुए, विधुर राजा साहेब अपना समय शिकार करते हुए व्यतीत करते हैं। एक बार वह एक आदिवासी लड़के और अपने दो मेहमान युगलों के साथ शिकार खेलने जाते हैं। रास्ते में कुछ अजीबो-गरीब घटनाएं होती हैं जो सबको गहन आत्मविश्लेषण के लिए मजबूर कर देती हैं।

निर्देशक: एके बीर

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार: शरत पुजारी, नवनी परिहार, संजना कपूर, मोहन गोखले।

फिल्म समारोह में भागीदारी

इंडियन पैनोरमा, भारत का अंतर्राष्ट्री य फिल्म समारोह - 1995
शंघाई अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह - चीन 1995

अरविंद देसाई की अजीब दास्तान
1978 | 110 मिनट | रंगीन | हिन्दी | ड्रामा

अरविंद देसाई एक धनि व्यापारी का इकलौता पुत्र है जो कीमती हस्तशिल्पों का व्यापार करता है। पिता के प्रति उसकी भावनाएं मिली-जुली हैं। वह उनकी हावी होने की प्रकृति से नफरत करता है, वहीं दूसरी ओर उनकी ताकत और निश्शंमक व्यवहार को पसंद भी करता है। वह अपने एक मार्क्सवादी मित्र के साथ कला और राजनीति पर लम्बी चर्चाएँ करता है। पिता की सेक्रेटरी ऐलिस के साथ उसका प्रेम प्रसंग चल रहा है और वह कभी-कभार फातिमा नाम की एक वेश्याी के पास भी जाता है। उसकी शादी अभी-अभी पेरिस से लौटे उच्च-वर्गीय परिवार की एक लड़की के साथ तय हो जाती है। यह खबर ऐलिस की माँ को निराश कर देती है और उसे यह एहसास होता है कि अरविंद ऐलिस के साथ बस टाइम-पास कर रहा था।

निर्देशक: सईद अख्तर मिर्ज़ा

निर्माता: एनएफडीसी

संगीत: भास्कर चंदावरकर

चलचित्रण: वीरेन्द्र सैनी

कलाकार: दिलीप धवन, अंजलि पैगनकर, श्रीराम लागू, ओम पूरी, सुलभा देशपाण्डे और रोहिणी हट्टंगडी।

पुरस्कार

सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड – 1979


बनगरवाडी
1995 | 130 मिनट | रंगीन | मराठी | सामाजिक

एक युवा ठेलागाड़ी पर जंगल से सैर करता हुआ, चंद गड़ेरियों, किसानों और रामोशी नामक एक विमुक्त जाती के कुछ सदस्यों द्वारा बसाए गए बनगरवाडी नामक छोटे से गाँव पहुँचता है। वहां वह एक अध्यापक के तौर पर गया है। शुरूआती आघात के बाद, वह गाँव के परिवेश व वातावरण को बहुत ही प्रेरणादायी और शिक्षाप्रद पाता है। तभी उसका तबादला किसी दुसरे स्कूल में हो जाता है। बनगरवाडी के साधारण लोग और उनका निर्मल स्वभाव उसकी यादों में बस जाते हैं।

निर्देशक: अमोल पालेकर

कैमरा: देबू देवधर

संगीत: वनराज भाटिया

कलाकार: चंद्रकांत कुलकर्णी, नंदू माधव, सुनील रानडे और अधिश्री अत्रे

पुरस्कार

मराठी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1996

दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म व दूसरा सर्वश्रेष्ठ चलचित्रण, ध्वनि, अभिनेता, हास्य-अभिनेता के लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार

कालनिर्णय पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ फिल्म 1997

43वां फिल्मफेयर पुरस्कार - मराठी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक 1997


फिल्म समारोह में भागीदारी

कार्लोवी वारी अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह 1996

बर्मिंघम अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह 1996

लन्दन फिल्म समारोह, यूके 1996

15वां एफएजेआर अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह, ईरान 1997

कायरो अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह, मिस्र 1996

बोगोता अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह, कोलंबिया - 1996

सारायेवो फिल्म समारोह, प्राग 1996


बायोस्कोप
2008 | 94 मिनट | रंगीन | मलयालम | सामाजिक

बायोस्कोप फिल्म बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक पर आधारित है। यह फिल्म केरल में सिनेमा के उदय की पृष्ठभूमि में शुरू होती है। फिल्म के नायक दिवाकरण की नयी यात्रा तमिलनाडु के समुद्र-तटों पर बायोस्कोप शो करने वाले, फ्रांसीसी, 'दूपों' से बायोस्कोप प्राप्त करने शुरू होती है। वह घर लौटता है और अपने गाँव में बायोस्कोप शो का आयोजन करना शुरू करता है। गाँववाले नए चित्रों का भोलेपन से स्वागत करते हैं। फिर भी कुछ लोग शक करते हैं कि बायोस्कोप के डब्बे में अंग्रेजों के भूत छिपे हैं।

दिवाकरण की पत्नी नलिनी बीमार पड़ जाती है। बेहद चिंतित उसके पिता मानते हैं कि आधुनिक दवाएं नलिनी का इलाज करने में अक्षम हैं और वह ज्योतिषशास्त्र और जादू-टोने में दवा-इलाज ढूंढते हैं। अपने नए चित्रों के साथ घर पहुँचने पर दिवाकरण का सामना, गाँव के लोगों की अज्ञानता और परम्परा के प्रति ज़िद जैसी शक्तियों से होता है। अतीत और भविष्यस का वर्णन करने वाली गूंगी लड़की के साथ एक तांत्रिक का वहां पहुंचने पर बायोस्कोीप के लिए खतरे की घंटी बजती है...

यह आधुनिकता के स्पंदन पर परम्परा की झाड़-फूंक है...

निर्देशक: केएम मधुसुधनन

निर्माता: एनएफडीसी

चलचित्रण: एमजे राधाकृष्णन

संगीत: चंद्रन वेयात्तुम्मल

सम्पादन: बीना पॉल

कलाकार: वाल्टर वैग्न,र, रामगोपाल बजाज, नेदुम्ब्रगम गोपी, भारतन जारक्कल, टीवी गंगाधरन, मेख राजन, कुट्टीयेदथी विलासिनी, निलाम्बूर आयेशा और अनुषा मोहन

पुरस्कार

राष्ट्रीय पुरस्कार - फिल्म के लिए स्पेशल जूरी अवार्ड 2008

केरल राज्य पुरस्कार - निर्देशन के लिए स्पेशल जूरी अवार्ड - 2008

केरल राज्य पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ निर्देशक - 2008

केरल राज्य पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ चलचित्रकार - 2008

केरल राज्य पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ बैकग्राउंड स्कोर - 2008

केरल राज्य पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ प्रोसेसिंग - 2008


फिल्म समारोह में भागीदारी

दक्षिण एशियाई अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह, सर्वश्रेष्ठ चलचित्रण के लिए न्यूयॉर्क अवार्ड 2008

एनईटीपीएसी जूरी, सर्वश्रेष्ठ एशियाई फिल्म के लिए ओशियान सिनेफैन अवार्ड - 2008

मानहाईम-हाइडलबर्ग, जर्मनी - इंटरनेशनल जूरी अवार्ड


विश्वईप्रकाश
1999 | 148 मिनट | उड़िया | सामाजिक

समय-समय पर घर से दूर की यात्रा, विश्वप्रकाश के लिए नयी उपभोक्ता संस्कृति के कारण बदलते मूल्यआ-मान्यपताओं के आत्मबोध का प्रयास बन जाती है। उसकी दोस्ती अंजलि से होती है। वह एक आत्मनिर्भर युवती है जो अपनी माँ के साथ नगर की सीमा पर, समुद्र के पास स्थित एक पुरानी कोठी में रहती है। उनकी दोस्ती जल्द ही टूट जाती है। एक दिन विश्वप्रकाश की मुलाकात जून नामक एक विदेशी महिला पर्यटक से होती है और वह घुटनभरे कस्बेद से छुटकारा पाने के लिए वह उस पर निर्भर हो जाता है। धीरे धीरे विश्वप्रकाश की दोस्ती कई विदेशी पर्यटकों से हो जाती है और इस प्रक्रिया में वह अपने मित्रों, परिवार और समाज से पूरी तरह कट हो जाता है। 'जून' का नए गंतव्यय की ओर रवाना होने का समय आता है और विश्वप्रकाश खुद को वापस न लौट पाने की स्थिति में फंसा पाता है।

निर्देशक: सुशांत निसरा

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार: संजीव सामल, नंदिता दास, क्रिस्टीना रांक, कार्मन कॉर्डवेल, बिनायक मिश्रा, अनुसुया चौधरी, बिभू प्रसाद सारंग, झना दवे

फिल्म समारोह में भागीदारी

शंघाई अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह - चीन 1999
कायरो अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोह - मिस्र 1999

चार अध्याय
1997 | 110 मिनट | हिन्दी | सामाजिक

भारतीय सिनेमा के क्षितिज में बनी सबसे प्रयोगात्मक फिल्मों में से एक, विशिष्टए शैली वाले निर्देशक कुमार साहनी की चार अध्याय, राष्ट्रवाद और देशभक्ति के प्रतिकूल प्रभावों पर एक मर्मभेदी कहानी है। इसी नाम से टैगोर के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म, ऐसी विचारधारा की विध्वंसक संभावनाओं और पाखण्ड को दर्शाती है जिसका अंधानुकरण किया जाता है और जिसे उसके अनुयायियों की मानवीय जरूरतों से ऊपर रखा जाता है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के आतंकवादी दौर पर आधारित यह फिल्म ईला की कहानी है जो हथियारबंद क्रांतिकारियों के एक दल के लिए एक जीता जागता राष्ट्र-चिन्ह और राष्ट्र का प्रतीक बन गई है। हालांकि शुरूआती संतुष्टि के बाद, वह बाद में आन्दोलन पर प्रश्न उठाने लगती है जब दल का एक सदस्य अतिन अंधभक्ति का विरोध करते हुए अपनी घृणा अभिव्यक्त करता है। दोनों के बीच प्रेम पनपता है लेकिन क्या अंधे ढंग से एक विचारधारा का पालन करने वाला एक दल उन्हें इस मासूम और खूबसूरत प्रेम की इजाज़त देगा? फिल्म चार अध्याय, टैगोर के काम की एक सूक्ष्म एवं सादी व्याख्या है जो उपन्यास को अधिक स्पष्ट भी करती है व उसके पूरक का भी काम करती है।

निर्देशक: कुमार साहनी

निर्माता: एनएफडीसी और दूरदर्शन

कलाकार:नंदिनी घोषाल, सुमंतो चट्टोपाध्याय, कौशिक गोपाल, श्रुति युसुफी


चलो अमेरिका
1998 | 119 मिनट | कॉमेडी | हिन्दी

पश्चिमी पॉप संस्कृति पर पले-बढ़े तीन कॉलेज छात्रों को अमरीका में बस जाने की सनक है और वे हमेशा वहां पहुंचने की अजीबो-गरीब योजनाएं बनाते रहते हैं। उनकी योजनाएं उन्हें बहुत सी हास्यास्पद स्थितियों में फंसा देती हैं। ढेर सारी दुर्घटनाओं के बाद इस तिकड़ी को अहसास हेाता है कि अमेरिकन ड्रीम मात्र एक भ्रम है...क्या। वाकई ऐसा होता है?

निर्देशक: पियूष झा
कलाकार: आशीष चौधरी, देवेन भोजानी, मंदार शिंदे।
निर्माता: एनएफडीसी लिमिटेड


1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | Next >>
© 2012 Cinemas of India. All rights reserved.