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एक होता विदूषक
वन्स देयर वास ए क्लााउन

1992 | 145 मिनट | रंगीन | मराठी | सामाजिक

अबुराव, जो एक दौर के लोक नाटकों का प्रसिद्ध विदूषक, सोंगड्या रहा है, सिनेमा की चकाचौंध भरी दुनिया की ओर आकर्षित होता है। एक अभिनेत्री के बहकावे में वह अपनी प्रेमिका को धोखा दे देता है जो पेट में उसका बच्चा लिए हुई है। अंततः वह अपने ही जीवन को हास्य से भर देता है, जिसकी कमी उसे हमेशा रही है। अपनी प्रेमिका से जन्मी बेटी की बदौलत वह एक नयी और सुखद ज़िन्दगी पा लेता है।

निर्देशक | कहानी: जब्बार पटेल

कैमरा: हरीश जोशी

सम्पादक: अनिल-विश्वास

संगीत: आनंद मोदक

कलाकार: लक्ष्मीकांत बेर्डे, वर्षा उसगांवकर, दिलीप प्रभावलकर और मोहन अगाशे

पुरस्कार

सर्वोत्तम मराठी फिल्म व नृत्यकला के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1993

सर्वोत्तम मराठी फिल्म, पटकथा, गीत, नृत्यकला, सर्वोत्तम गायक व कथानक के लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार - 1992


फिल्म समारोह में भागीदारी

इंडियन पैनोरामा, भारत का अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह – 1993


फाइव बाय फोर
2003 | 90 मिनट | रंगीन | अंग्रेज़ी | सामाजिक

फाइव बाय फोर पांच स्त्रियों की कहानी है। वे सब स्माीर्ट, बुद्धिमान और जागरूक हैं। फिल्म का खाका एक उपन्यास के जैसा है, जिसकी एक शुरुआत, मुख्य कथा और उपसंहार है। मुख्य कथा चार छोटे भागों में बंटी हुई है। जहां हर लघु-कथा एक विशिष्ठ किरदार पर केन्द्रित है, वहीं वह अन्य लड़कियों के जीवन पर भी ध्यान देती है। एक कहानी अगली कहानी में जा मिलती है। हर कहानी में बारी-बारी से एक लड़की नायिका की भूमिका लेती है और बाकी लड़कियां अतिथि भूमिका में आ जाती हैं।

निर्देशक: रूपा स्वामीनाथन

निर्माता:एनएफडीसी और दूरदर्शन

कलाकार: कैरी एडवर्ड्स, दिव्या दर्शिनी, ईश्वर, हरदीप मिन्हा,स, प्रीता, सपना, सुजाता पंजू, उषा, वेंकट


गमन
1988 | 114 मिनट | हिन्दी | ड्रामा

गमन इस देश के जड़ों से उखड़े लोगों का काव्य है; जो बेकाबू हालातों के चलते अपने परिवारों और घरों को छोड़ने को विवश हो जाते हैं और अपने सामाजिक व सांस्कृतिक ताने बाने को बिखरा हुआ पाते हैं। यह उत्तर प्रदेश के एक युवक ग़ुलाम हसन की कहानी है जिसके पास बहुत थोड़ी सी शिक्षा और ज़रा सी ज़मीन है। उसके अपने गाँव में कोई अवसर नहीं है और इसलिए वह अपनी बूढ़ी माँ और जवान पत्नी खैरून को छोड़ कर बॉम्बे जा बसता है। ग़ुलाम हसन के जाने के बाद इन महिलाओं की ज़िन्दगी ठहर जाती है। वर्तमान असहनीय और भविष्य अनिश्चित है। शहर में ग़ुलाम गाँव के मित्र, टैक्सी चालाक लल्लू लाल तिवारी के साथ शरण पा जाता है।

निर्देशक: मुज़फ्फर अली

निर्माता: इंटीग्रेटेड फिल्म्स

कलाकार: भीम फारूक शेख, स्मिता पाटिल, जलाल आघा, नाना पाटेकर, गीता सिद्दार्थ

पुरस्कार

1979 सर्वोत्तम संगीत निर्देशक, राष्ट्रीय पुरस्कार

1979 सर्वोत्तम गायिका


गांधी
1982 | 191 मिनट | जीवनी | ड्रामा | इतिहास

वकील मोहनदास करमचंद गांधी की जीवनी, जो अहिंसात्मक विरोध के अपने सिद्धांत के ज़रिये, अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रसिद्ध नेता बने।

निर्देशक: रिचर्ड एटनब्रो

लेखक: जॉन ब्रिली

कलाकार: बेन किंग्सले, जॉन गील्गूड और कैंडीस बर्गन

पुरस्कार

55वें अकादमी अवार्ड्स

फिल्म ने आठ अकादमी अवार्ड जीते व तीन अन्य के लिए नामांकित हुई:

सर्वोत्तम पिच्चर (जीता)

सर्वोत्तम निर्देशक (रिचर्ड एटनबरो)

सर्वोत्तम मौलिक पटकथा (जॉन ब्रिली)

सर्वोत्तम फिल्म सम्पादन (जॉन ब्लूम)

प्रमुख भूमिका में सर्वोत्तम अभिनेता (बेन किंग्सले)

सर्वोत्तम कला निर्देशन

सर्वोत्तम चलचित्रण

सर्वोत्तम कॉस्टयूम डिज़ाइन (भानू अथैय्या)

सर्वोत्तम विदेशी भाषा फिल्म के लिए गोल्डन ग्लोब अवार्ड

सर्वोत्तम विदेशी फिल्म के लिए डेविड डी दोनातेल्लो




गंगूबाई
2013 | 106 मिनट | हिन्दी व अंशतः मराठी | सामाजिक

गंगूबाई एक निस्संीतान बूढ़ी विधवा है जिसने मुंबई से चार घंटे की दूरी पर बेहद खूबसूरत सह्याद्री पर्वत श्रृंखला स्थित माथेरान नामक एक छोटे से औपनिवेशिक हिल स्टेशन पर अपना पूरा जीवन बिताया है। अपने प्यारे फूलों की देखभाल करना और घरेलू नौकरानी के रूप में कुछ घरों में काम करना ही उसकी दुनिया होती है। उन घरों में से एक घर रईस होदिवाला परिवार का है जो माथेरान में एक बंगले का मालिक है। यह बंगला पारिस्थिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र में पड़ता है और इसमें वाहनों, यहाँ तक की साइकलों को लाना भी मना है।

गंगूबाई के शांत जीवन में हलचल तब मचती है जब वह एक दिन होदिवाला की किशोर बेटी को जामुनी रेशम पर सफ़ेद कढ़ाई वाली शानदार पारसी साड़ी पहने हुए देखती है। बूढ़ी महिला तुरन्त इस अनोखी, कीमती और विशेष रूप से निर्मित रचना की ओर आकर्षित हो जाती है और वैसी ही एक साड़ी खरीदने की चाहत रखती है।

इस असाधारण जुनून से प्रेरित, गंगूबाई तमाम कठिनाइयों के का सामना करते हुए और कुछ गलत फैसलों के बावजूद, चार साल की कड़ी मेहनत से पैसों का प्रबन्ध कर लेती है और अंततः खुद को विशाल, प्रदूषित और भीड़-भाड़ भरे मुंबई शहर में पाती है जो उसके लिए एक ऐसा दुस्वप्न है जिसके लिए वह कभी तैयार नहीं थी। बेचैनी और संदेह से भरी वह यह जान कर सुखद रूप से आश्चर्यचकित हो जाती है कि लोग हर जगह एक जैसे होते हैं और कठोर बाहरी रूप के बावजूद, सबसे निष्ठुर हृदय को भी करुणा और प्रेम से बदला जा सकता है।

आखिरकार एक दिन गंगूबाई साड़ी प्राप्त कर अपना सपना पूरा कर लेती है लेकिन वह अंतत: असफल होती है और घर पर उस व्यक्ति से धोखा खाती है जो उसके दिल के सबसे नज़दीक होता है। फिर भी, उसके आत्मीय गुण और जीवन के प्रति उसकी अक्षय उदारता, सपने टूटने के दुःख से उसे मुक्त कर देते हैं और उसके जीवन को उसकी किसी भी कल्प ना से बेहतर रास्ते पर ले जाते हैं...

निर्देशक: प्रिया कृष्णस्वामी

निर्माता: एनएफडीसी लिमिटेड

कलाकार: सरिता जोशी, पूरब कोहली, मीता वशिष्ठ, राज ज़ुत्शी, गोपी देसाई, रुषद राना, निधी सुनील, बेहराम राना



गोदाम (द वेयरहाउस)

स्व-निर्मित

1984 | 124 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

यह फिल्म शादी की बारात के बाद एक भेड़ की बलि और देव-स्तुति के दृश्य से शुरू होती है। किशोर दुल्हन येसु का विवाह एक एय्याश बूढ़े के पागल बेटे से करवा दिया गया है। विवाह की रात ससुर येसु का बलात्कार करने का प्रयास करता है और उसी दौरान धक्का-मुक्की में मारा जाता है। डरी हुई येसु भागकर एक परित्यक्त गोदाम में छुप जाती है। अगले ही दिन, गोदाम का नया रखवाला एडेकर और उसका सहायक धर्मा गोदाम की ज़िम्मेदारी संभालते हैं। येसु गेहूं के बोरों के पीछे छिपी पायी जाती है। वे उसे खाना खिलाते हैं और रात वहीं रुकने देते हैं, लेकिन एडेकर लड़की को आश्रय देने से डरता है। जैसे जैसे समय बीतता है, धर्मा येसु से स्नेहशील व्यवहार करने लगता है और उसके प्रति एक रक्षात्मक रवैया अपना लेता है। उसका मुख्य कार्यालय ट्रक-भर अनाज गोदाम में भेजने का फैसला करता है। एडेकर डरा रहता है कि कहीं किसी को लड़की मिल न जाए। वह ज़्यादा पीने लगता है और अपना विवेक खोने लगता है। नशे में धुत, उसे क्रोध का दौरा पड़ता है और अंततः वह येसु को फ़ौरन वहां से चले जाने के लिए कहता है। अपने कमरे में वापस लौटकर वह येसु और नज़दीक आते ट्रकों के मतिभ्रमों से पीड़ित हो जाता है।

निर्देशक | पटकथा | संगीत: दिलीप चित्रे

कैमरा: गोविन्द निहलानी

सम्पादक: संजीव नाइक

कलाकार: केके रैना, सत्यदेव दुबे, त्रुप्ति

पुरस्कार

यूनेस्को अवार्ड


फिल्म समारोह में भागीदारी

फेस्टिवल दे 3 कोंतीनौ, नौंट 1984

प्री स्पेत्सियाल डू यूरी - कैन फिल्म समारोह


जाने भी दो यारों
1983 | 110 मिनट | रंगीन | हिंदी | कॉमेडी

फोटोग्राफरों की एक जोड़ी स्टूडियो खोलती है और पाती है कि उसके उद्घाटन के साथ उल्ट-पुल्ट घटनाएं हो रही है। फोटोग्राफी का काम उन्हें शहर के बिल्डरों, म्युनिसिपल अधिकारियों, आदि से जुड़ें संदेहपूर्ण तथ्यों से रूबरू करवाता है। फिल्म अपने कथात्मक तमाशे में हास्यप्रद शैली को बुनते हुए कई सामाजिक बुराइयों को उजागर करती है और महाभारत की कड़ी का भी प्रभावशाली उपयोग करती है।

निर्देशक: कुंदन शाह

कैमरा : बिनोद प्रधान

सम्पादक: रेनू सलूजा

संगीत: वनराज भाटिया

कलाकार: नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, नीना गुप्ता, ओम पुरी, भक्ति बर्वे, पंकज कपूर, सतीश शाह

पुरस्कार

सर्वोत्तम सम्पादन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1992

निर्देशक की सर्वोत्तम प्रथम फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1984

सर्वोत्तम कॉमेडी के लिए फिल्मफेयर अवार्ड - 1985

सर्वोत्तम फिल्म के लिए उत्तर प्रदेश फिल्म पत्रकार समिति – 1984


जया गंगा
1996 | 85 मिनट | रंगीन | अंग्रेज़ी-फ़्रांसिसी-हिन्दी | सामाजिक

निशांत पेरिस में रहने वाला एक भारतीय है। वह कब्रिस्तान में जया नामक एक असाधारण महिला से मिलता है। वह दोहरा जीवन जीने का दावा करती है, एक अपना और दूसरा नेद्या का, जिसकी खूबसूरती ने आंद्रे ब्रेटन को उसपर एक पुस्तक लिखने को प्रेरित किया था। जया को गंगा प्रेम की धुन सवार है। वह रहस्यमय ढंग से गायब हो जाती है और निशांत गंगा, की ओर यात्रा पर निकल पड़ता है। नदी के किनारे वह ज़हरा से मिलता है जो एक कवयित्री और नृतकी है। वह निशांत को जया की याद दिलाती है। वह उसे वेश्यालय छोड़ कर उसके साथ गंगा-यात्रा करने के लिए मनाता है।

निर्देशक | लेखक:विजय सिंह

कैमरा : पियूष शाह

सम्पादक: रेनू सलूजा

संगीत: वनराज भाटिया

कलाकार: असिल रईस, स्मृति मिश्रा, पौला क्लाइन, जौं-क्लूड कैरिया, बनवारी तनेजा, गोपाल सिंह

पुरस्कार नामांकन

सर्वोत्तम फिल्म के लिए विश्व फिल्म समारोह, मोंट्रियल - 1996

सर्वोत्तम फिल्म के लिए फेस्टिवल इन्टरनात्सियोनाल डेस फिल्म्स , आमिया (फ्रांस) - 1996

स्टोकहोल्म अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह 1996 - सर्वोत्तम फिल्म

फौर्तोलेज़ा अंतर्राष्ट्रीय समारोह, ब्राज़ील 1998 - सर्वोत्तम फिल्म

फिल्म समारोह में भागीदारी

वैंकूवर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह

घेन्ट अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (बेल्जियम)

अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, क्वैबैक

मार देल प्लाता अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (अर्जेंटीना)

सिनेक्वे, सान होसे (कैलिफ़ोर्निया)

आईएफएफआई, नयी दिल्ली

म्यूनिख फिल्म समारोह, म्यूनिख

फेस्टिवल देस फिल्म्स रोमंतीकीस, काबौर्ग (फ्रांस)

रौकोंत्रा सिनेमाटोग्राफीका, इना सर्तैन ईदे ड्यू सिनेमा, पोंतां, पेरिस ,(उद्घाटन फिल्म)

नॉर्टन पाल्म स्प्रिंग्स अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (कैलिफ़ोर्निया)

फेस्टिवल दे फम्मा, ग्वाद्लूप

फिल्म्स फॉर साउथ फिल्म फेस्टिवल, ओस्लो

सीने फ्रान्त्सेसे, रोम

बाफ्ता स्पेशल स्क्रीनिंग, लन्दन

बार्सिलोना 2000, बार्सिलोना

पेरिस फिल्म समारोह

प्नोम हैन


काली सलवार
2002 | 112 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

एक कसबे की वेश्या सुल्ताना और उसका दलाल खुदाबक्श, अपने सपनों और थोड़े बहुत सामान के साथ महानगर को पलायन कर जाते हैं। सुल्ताना अपने चमक-धमक भरे व चतुर प्रलोभनों में लगी रहती है पर किसी तरह ग्राहक चूक जाती है। उसका धंधा चौपट हो जाता है। निराश होकर खुदाबक्श भी कई नौकरियों पर हाथ आज़माता है लेकिन असफल रहता है। सुल्ताना का दुख और अकेलापन एक सलवार की इच्छा में विषयाश्रित हो जाता है, जो उसे उसके मुहर्रम मातम की पोशाक को पूरा करने के लिए चाहिए।

निर्देशक: फरीदा
कलाकार: सादिया सिद्दीकी, इरफ़ान खान, जीतू शास्त्री, सुरेखा सीकरी, व्रजेश हीरजी, के के, शीबा चड्ढा
निर्माता: एनएफडीसी और अन्दाज़ प्रोडक्शन

कमला की मौत
कमला की मौत

1989 | 100 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

कमला एक 20 वर्षीय लड़की है जो एक युवक से प्रेम करती है। वह खुद को गर्भवती पाकर घबरा जाती है। वह मध्य-वर्गीय परिवारों से भरी एक पांच-मंज़िला बिल्डिंग में एक कमरे के फ्लैट में रहती है। समस्या का कोई हल न पाकर और अपराधबोध से ग्रस्त होकर वह बालकनी से कूद कर आत्महत्या कर लेती है। पड़ोसी इस दुखद घटना को देखने बाहर आते हैं। इनमें सुधाकर, उसकी पत्नी और उनकी दो बेटियाँ हैं। यह घटना उन सब को सोच में डाल देती है और अपने गुप्त जीवनों की जांच-पड़ताल करने पर विवश कर देती है। वे इस आलोचनात्मक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कमला उन लोगों से अधिक दोषी नहीं थी।

निर्देशक: बासु चटर्जी

कैमरा : अजय प्रभाकर

सम्पादक:कमल सैगल

संगीत: सलिल चौधरी

कलाकार: पंकज कपूर, रूपा गांगुली, सुप्रिया पाठक, हर्षद देसाई, कविता ठाकुर, डिम्पल अरोड़ा, इरफ़ान खान और देवेन्द्र खण्डेलवाल

पुरस्कार नामांकन

सर्वोत्तम कथानक के लिए फिल्मफेयेर अवार्ड - 1990

सर्वोत्तम बंगाली फीचर फिल्म और सर्वोत्तम निर्देशक के लिए बीएफजेए पुरस्कार

सर्वोत्तम फिल्म के लिए ऋत्विक घटक अवार्ड - 1990

फिल्म समारोह में भागीदारी

कायरो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह – 1990


कथा दोन गणपतरावांची
1996 | 140 मिनट | मराठी | ड्रामा

1960 के दशक में महाराष्ट्र के समुद्र के किनारे के एक गाँव में स्थित, यह फिल्म दो दशकों में फैली हुई है। यह फिल्म एक दुखद कहानी है कि किस तरह मामूली से झगड़े से सबसे अच्छी दोस्तियों में दरार पड़ सकती है। एक बार जब दरार पड़ जाती है, तो ऐसे लोग ज़रूर होते हैं जो झगड़े को अपना हित साधने के लिए इस्तेमाल करना बखूब जानते हैं, भले ही इस प्रक्रिया में मुख्य शत्रु पूरी तरह तबाह ही क्यों न हो जाएँ।
यह कहानी बेतुके हास्य और मार्मिक करुण-रस का मिश्रण करते हुए कही गयी है। फिल्म में यादगार अभिनय, खूबसूरत लोकेशन व पहनावे और उत्कृष्ट चलचित्रण है जिसे कल्पनाशील दृश्य-मज़मूनों से बाँधा गया है। यह फिल्म आज भी उतनी ही ताज़ी है। बीते दो दशकों के दौरान देश में हुई घटनाओं के साथ फिल्म ने परत-दर-परत नए अर्थ ग्रहण किए हैं।

निर्देशक: अरुण खोपकर

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार:डॉ. मोहन अगाशे, दिलीप प्रभावलकर, उत्तरा बावकर, प्रशांत सूभेदार, रेणुका शहाने, किशोर कदम, संजय मोने, सयाजी शिंदे, अतुल पेठे

फिल्म समारोह में भागीदारी / पुरस्कार :

महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार 1997 सर्वोत्तम हास्य कलाकार, सर्वोत्तम कॉस्टयूम

बेप्पू एशियन फिल्म समारोह, जापान - 1998

कायरो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, मिस्र - 1999

मॉस्को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह - 1997 / इंडियन पैनोरामा - 1997।


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