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पल्तादाचो मुनिस
2009 | 96 मिनट . | कोंकणी | सामाजिक

विनायक एक वनरक्षक है जो गोवा-कर्नाटक सीमा पर घने जंगल स्थित सरकारी आवास में महज़ अपनी मृत पत्नी की यादों के साथ एक सुनसान जीवन जीता है। वन विभाग के अपने वरिष्ठ अधिकारियों को तबादले के लिए भेजी गयीं सिफारिशों के बार-बार खारिज होने ने उसे निराश कर दिया है। एक रात वह अपने घर के आँगन में एक मानसिक रूप से बीमार, गन्दी व अस्त-व्यस्त स्त्री को पाता है। वह उसको भगा देता है लेकिन वह बार बार लौट आती है। उसके गंदे भेष और रुष्ट व्यवहार से शुरुआती चिड़चिड़ाहट के बाद वह रोज़-रोज़ आँगन में खाना ढूँढते और सोने के लिए आते देखने का आदि हो जाता है। समय बीतने के साथ वह उसकी उपस्थिति में सुखी महसूस करने लगता है।
उस स्त्री के साथ उसके बढ़ते रिश्तेू पर शुरुआत में मामूली टीका-टिप्पाणी होती है, लेकिन उस स्त्रीक के गर्भवती होने पर गांव में उसका कड़ा विरोध होता है। गांववाले मानसिक रूप से बीमार व असहाय स्त्री पर विनायक के अधिकार पर प्रश्न उठाते हैं। उनका मानना है कि उसका रिश्ता नैतिक रूप से गलत है और उसे ख़त्म कर दिया जाना चाहिए। लेकिन विनायक के लिए वह उसकी साथी और उसके बच्चे की माँ है और इस मामले में उसके मन में कोई संशय नहीं है। और इस तरह, उस स्त्री की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर रहे समाज और उस पुरुष के बीच टकराव शुरू हो जाता है, जो उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहता है।

निर्देशक: लक्ष्मीकांत शेत्गांवकर

निर्माता: एनएफडीसी

संगीत निर्देशक: वेदा नायर

कलाकार: चित्तरंजन गिरी, वीणा जामकर, वसंत जोसलकर, प्रशांति तल्पंकर, दीपक अमोंकर

फिल्म समारोह में भागीदारी / पुरस्कार

राष्ट्रीय पुरस्कार 2009 – सर्वोत्तम कोंकणी फिल्म

टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह 2009 – एफआईपीआरईएससीआई पुरस्कार

भारतीय फिल्म समारोह लॉस एंजेल्स – 2010 – ग्रांड ज्यूरी प्राइज़ सर्वोत्तम फिल्म



परिणमन
2003 | 130 मिनट | मलयालम | सामाजिक

परिणमन वृद्धों में अकेलेपन और निरर्थकता के चिरकालीन मुद्दे से सम्बन्ध रखती है. सेवानिवृत्त होने के बाद बालकृष्ण मरार को अपने परिवार के रूखे व्यवहार का सामना करना पड़ता है। उनकी कहानी के समानांतर मानसिक रूप से पीड़ित और अलगावग्रस्त पूर्व जज दमोदरण नम्बीशन की कहानी चलती है जो एकांत की खोज में काशी चले जाते हैं। पांच और वृद्ध नागरिक हैं जिनकी दिक्कतें फिल्म का आधार बनती हैं। कहानी इन भले लोगों के बारे में है जिनकी ज़िन्दगी बुढ़ापे के साथ बिखर जाती है। वे लगभग हर उस चीज़ को खो देते हैं जो उन्हें प्या री है और बहिष्कृत महसूस करते हैं, मानो वे अपने परिवार और समाज पर बोझ हों।

निर्देशक: वेणु

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार: मातमपु कुंजुकुत्तन, नेदुमुडी वेणु, कवियूर पोंनाम्मा, अशोकन, शालू मेनन, अर्चना, टीपी माधवन, बेबी निथ्या रंजीत

फिल्म समारोह में भागीदारी / पुरस्कार

ऐशदौड अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह , इस्रैल - सर्वोत्तम पटकथा पुरस्कार

मलयालम फिल्म समारोह दुबई 2003

चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह 2003

इंडियन पनोरामा 2003

पार्टी
1984 | 110 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

एक धनी मध्यायु विधवा दमयंती जो उच्च-वर्गीय कला संरक्षक हैं, हाल ही में एक प्रतिष्ठित पुरस्कानर प्राप्तन एक नामी नाटककार व उपन्यासकार दिवाकर बर्वे के सम्मान में एक पार्टी का आयोजन करती हैं। इस पार्टी शहर के साहित्यिक व सांस्कृतिक कुलीनों और उनके पीछे-पीछे खुशामद करने वाले कला मर्मज्ञों का जमावड़ा होता है। बातचीत के दौरान इस मण्डली द्वारा संरक्षित एक बेहद गुणवान व क्षमतावान लेखक - अमृत - का नाम बार बार सामने आता है। एक प्रतिभावान कवि अमृत एक आशाजनक साहित्यिक जीवन को त्याग शोषण के खिलाफ आदिवासी जनता के संघर्ष से जुड़ गया। कथनी और करनी के बीच की खाई को भरने का उसका प्रयास पार्टी में अन्य लोगों को बार बार याद आता है। वह फिल्म चित्रपट को बांधने वाली एक अदृश्य डोर है। अंत में उसकी रहस्यमय उपस्थिति बाकी सब की उपस्थिति से अधिक अर्थपूर्ण और उत्कट बन जाती है।

निर्देशक | पटकथा: गोविन्द निहलानी

कैमरा: गोविन्द निहलानी

सम्पादक: रेनू सलूजा

कलाकार: विजया मेहता, अमरीश पुरी, ओम पुरी, रोहिणी हत्तान्ग्दी, नसीरुद्दीन शाह, दीपा साही

पुरस्कार

सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1985


फिल्म समारोह में भागीदारी

एशिया पेसिफिक फिल्म समारोह - सर्वोत्तम अभिनेत्री- 1985


पर्सी
1989 | 110 मिनट | सामाजिक | गुजराती

एक काफी मध्यवर्गीय वातावरण – बम्बई की पारसी बस्ती, के अगोचर कोने पर स्थित एक पुराने मकान में अपनी बूढ़ी माँ के साथ अकेले रहने वाले 28 वर्षीय बेढंगे युवक पर्सी में कुछ हास्यास्पद और दयनीय है। हालाँकि पर्सी की माँ बानुबाई पूरी तरह से पर्सी के जीवन पर हावी रहती हैं लेकिन वह ऐसा प्यार और करुणा के साथ करती हैं। पर्सी, यौन बलवर्धक औषधियों के लिए प्रसिद्ध एक छोटी फार्मेसी में क्लर्कीय पद संभालता है। सिर्फ कार्यस्थल पर ही पर्सी थोड़ी-बहुत हुकूमत चलाता है और कुछ अधिकार व आत्मविश्वास दिखाता है। एक दिन पर्सी को आफिस के खातों में धोखाधड़ी का पता चलता है जिसके फलस्वरूप एक कनिष्ठ कर्मचारी को बर्खास्त कर दिया जाता है। इस घटना का पर्सी और बानुबाई के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर्सी की शान्ति जल्द ही भंग होने वाली है।

निर्देशक: परवेज़ मेर्वांजी
कलाकार: रूबी पटेल, कुरुष देबू, होसी वसुने
निर्माता:एनएफडीसी लिमिटेड


पुरस्कार

राष्ट्रीय पुरस्कार 1990 - गुजराती में सर्वोत्तम फीचर फिल्म


पेस्ट्नजी
1987 | 130 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

पिरोज और पेस्ट नजी दो मित्र हैं जिनकी आपस में खूब पटती है हालांकि उनके मिजाज़ बहुत अलग हैं। अकांउटेण्टे पिरोज संकोची स्वहभाव का है, जबकि पेस्टमनजी मिलनसार है। शादी की उम्र की एक प्यारी लड़की जेरू को अलग-अलग मौकों पर पिरोज और पेस्ट नजी दोनों से मिलवाया जाता है। जहां पिरोज उससे शादी करने को लेकर दुविधा में है वहीँ पेस्ट नजी तुरंत अपना मन बना लेता है। वह इस बात से अनभिज्ञ है कि उसके दोस्त ने भी जेरू से मुलाकात की है और पसंद किया है। पिरोज को चोट पहुँचती है लेकिन उनकी दोस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ता। पिरोज का तबादला भुसावल में हो जाता है लेकिन वह संपर्क बनाए रखता है। बम्बई की एक संक्षिप्त यात्रा पर यह जान कर वह चूर-चूर हो जाता है कि उनकी शादी टूटने के कगार पर है।

कैमरा:राजन कोठारी

संगीत: वनराज भाटिया

कलाकार:शबाना आज़मी, अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह, किरण सिंह ठाकुर खेर

पुरस्कार

हिन्दी में सर्वोत्तम फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1988
सर्वोत्तम कास्ट्यूम डिज़ाइनर के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार – 1988


रूई का बोझ

सह-निर्मित

1997 | 115 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

किशन्साह एक स्वारभिमानी व बुद्धिमान वृद्ध आदमी हैं। जैसे ही उन्हेंक यह लगता है कि उनके बेटों और बहु के बीच सब कुछ ठीक नहीं हैं, तो वे अपने परिवार के सदस्यों के बीच सम्पत्ति बांटने का फैसला करते हैं। बंटवारे के बाद किशन्साह अपने सबसे छोटे बेटे के साथ रहने लगते हैं लेकिन उनके जीवन की शांति उम्मीद से पहले भंग हो जाती है। उन्हेंब बुढ़ापे की सज़ा भुगतनी पड़ती है – अपमान और तिरस्कार। अब उनकी कोई कद्र नहीं है। एक दिन उन्हें कबाड़खाने में रहने के लिए फेंक दिया जाता है। वह खुद को परिवार से पूरी तरह पृथक्कृत महसूस करते हैं और सारे रिश्ते तोड़ दुनिया का हमेशा के लिए परित्याग करने का फैसला करते हैं।

निर्देशक: सुभाष अग्रवाल

कैमरा: महेश चंद्रा

सम्पादक: असीम सिन्हा

संगीत: के नारायण

कलाकार: पंकज कपूर, रीमा लागू, रघुवीर यादव

फिल्म समारोह में भागीदारी | पुरस्कार

ज़ान्ज़िबार अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, 1998

16वां एफएजेआर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह , 1998


सम्मोहनम

1994 | 102 मिनट | रंगीन | मलयालम | ड्रामा

एक आश्चर्यजनक रूप से मोहक लड़की पेन्नू (‘लड़की’) एक शांत गाँव में आती है। वह पुरुषों के बीच असाधारण किस्म की दरारें पैदा कर देती है और विवाहों और पुरानी दोस्तियों को तोड़ देती है। एक व्यापारी उम्मिनी जो शहर आता-जाता है और बाहरी दुनिया से गाँव का एकमात्र संपर्क-सूत्र है, आखिरकार के साथ पेन्नूि के साथ परिणसूत्र में बंध जाता है। लेकिन पेन्नू के कारण स्थानीय लोगों के बीच मची हलचल का नतीजा यह होता है कि एक चीनी मिल का ऑपरेटर चिन्दन गलती से एक पिछड़े सहायक अम्बू को चाकू मारकर खुद डूब कर जान दे देता है। अंत में पेन्नू को अपने यौवन से गाँव में अव्यवस्था फैलाने के लिए गाँव छोड़ने पर विवश कर दिया जाता है।

निर्देशक: सीपी पद्माकुमार

निर्माता: एनएफडीसी

कलाकार: मुरली, नेदुमुडी वेणु, अर्चना

पुरस्कार
एडिनबर्ग फिल्म फेस्टिवल अवार्ड – 1995 बेस्ट ऑफ़ द फेस्ट


सलाम बॉम्बे

1988 | 113 मिनट | रंगीन | हिन्दी | ड्रामा

सलाम बॉम्बे! बम्बई के रेड-लाइट इलाके पर आधारित एक साहसिक कहानी है। यह लावारिस बच्चों, नशेड़ियों, दल्लों और वेश्याओं के रोजमर्रा के जीवन को दर्शाती है। यह एक युवक कृष्णा के जीवन को दिखाती है जो महानगर में 500 रुपये कमाने आया है और एक दिन अपनी माँ के पास लौटने का सपना देखता है। वास्तविक फिल्मांकन स्थलों पर फिल्माई गई, मीरा नायर की यह पहली फिल्म 1989 में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी।

निर्देशक: मीरा नायर

निर्माता: मीराबाई फिल्म्स

कलाकार: पाटेकर, रघुबीर यादव, अनीता कंवर, शफिक सएद, हंसा विठल, इरफ़ान खान

पुरस्कार
राष्ट्रीय पुरस्कार 1989 - हिन्दी में सर्वोत्तम फीचर फिल्म

राष्ट्रीय पुरस्कार 1989 - सर्वोत्तम बाल कलाकार

कैन फिल्म समारोह 1988 - कैमरा ड्योर

अकेडमी अवार्ड 1989 - सर्वोत्तम विदेशी फिल्म के लिए नामांकन


सलीम लंगड़े पे मत रो
Don't Cry For Salim The Lame

1989 | 120 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

सलीम, एक युवक जो लंगड़ाता है, अनिश्चय की स्थिति में रहता है. एक स्तर पर तो वह गरीब लेकिन इज्ज़तदार, स्वाभिमानी परिवार से सम्बन्ध रखता है। सलीम की जड़ें इस तंग और गरीब मुस्लिम मोहल्ले में गहरी हैं। लेकिन सलीम ने एक और दुनिया खोज ली है। भ्रामक सम्मोहन और घातक आकर्षणों से भरी संगठित अपराध की दुनिया, जहां ज़रा सी धमकी, चाकू दिखाने और भीड़ द्वारा उपद्रव की अकथित धमिकयां आसानी से तत्काल पैसे बनवा सकती हैं। बाद में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।

निर्देशक | कहानी: सईद अख्तर मिर्ज़ा

कैमरा: वीरेन्द्र सैनी

संगीत: शारंग देव

कलाकार: पवन मल्होत्रा, मकरंद देशपाण्डे,आशुतोष गोवारिकर, राजेंद्र गुप्ता, नीलिमा अज़ीम, विक्रम गोखले और सुरेखा सीकरी

पुरस्कार

सर्वोत्तम हिन्दी फीचर फिल्म और चलचित्रण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1990

सर्वोत्तम कैमरामैन के लिए बेंगाल फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन अवार्ड - 1990


फिल्म समारोह में भागीदारी

टोक्यो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की फिप्रेची ज्यूरी द्वारा विशेष उल्लेख, जापान - 1989

एफएजेआर फिल्म समारोह, ईरान - 1990

लन्दन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, यूके - 1990

कायरो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, मिस्र - 1990

भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का इंडियन पेनोरामा – 1990


सनाबी
भूरी घोड़ी

1994 | 112 मिनट | रंगीन | मणिपुरी | सामाजिक

केन्द्रीय किरदार सनाबी या भूरी घोड़ी के इर्द गिर्द घूमती यह फिल्म एक तलाकशुदा स्त्रीए सखी और उसके बचपन के मित्र की कहानी बयान करती है जो उससे शादी करना चाहता है। उससे हाँ करवाने के लिए, वह सखी की प्रिय घोड़ी चुरा लेता है। भूरी घोड़ी का नियन्त्रण फिर से हासिल करने के लिए सखी आदमी के साथ लड़ती है।

निर्देशक | पटकथा | संगीत: अरिबाम स्याम सर्मा

कैमरा: सनी जोसफ

सम्पादक: उज्जल नंदी

कलाकार: हरोंगबाम देबेरी, आरके सुशीला, टी नोबो कुमार


पुरस्कार

मणिपुरी में सर्वोत्तम फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार - 1996

वी शांताराम पुरस्कार - 1997

सर्वोत्तम निर्देशन के लिए स्पेशल ज्यूरी अवार्ड


फिल्म समारोह में भागीदारी


उत्तर फिल्म समारोह - 1996

कायरो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह – 1996


संशोधन
1996 | 165 मिनट | रंगीन | हिन्दी | सामाजिक

ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों में एक-तिहाई महिलाओं के होने को बाध्यकारी बनाने वाले कानूनी संशोधन का गाँव के मौजूदा सरपंच ठाकुर रतन सिंह द्वारा प्रशंसात्म क ढंग से स्वागत नहीं किया जाता। हालांकि वह यह नाटक करता है कि वह इस विचार के पक्ष में है लेकिन वह अपने बेटे इन्दर सिंह के साथ दोस्तों की पत्नियों को, जिन्हें वह उनके पतियों व जाति-समूहों द्वारा नियंत्रित करने की आशा रखता है, चुनाव लड़ाने का षड्यंत्र रचता है। भंवर सिंह ठाकुर रतन सिंह के ऋणी हैं। उनकी पत्नी विद्या नव-निर्वाचित महिला पंचायत सदस्य हैं। विद्या, जो की शिक्षित है, पाती है कि महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण महज़ कागज़ी है और असल में निर्णय लेने का अधिकार अभी भी चालाक रूढ़ीवादियों के हाथ में ही है। विद्या फैलसा करती है कि यह बदलाव का समय है.

निर्देशक | कैमरा | सम्पादक: गोविंद निहलानी

संगीत: विशाल भारद्वाज

कलाकार: वान्या जोशी, ललित परीमू, मनोज वाजपेयी, उत्तरा बावकर, उत्कर्ष नायक, कविता रायरथ, विनीता कुमार, अनुपम श्याम, किशोर कदम और आदित्य श्रीवास्तव


शेष दृष्टि
1997 | 125 मिनट | रंगीन | उड़िया | कॉमेडी

केदार बाबू गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के आह्वान के दिनों से एक स्वतंत्रता सेनानी हैं। विवाह के शुरुआती दिनों में केदार बाबू ने अपनी पत्नी को खो दिया। तब से उन्होंने अपने इकलौते बेटे संग्राम को काफी पैत्रिक प्रेम से पाला है। शहर में संग्राम ज़मींदार बहादुर सूर्यकांत सिंह के घर में रहता है, जहां धीरे-धीरे नैतिक पतन हो रहा है। यह उसे भ्रम व दुविधा की अवस्थिति में धकेल देता है। पिता के साथ आखिरी मुलाकात में, उत्सु्कता से सराबोर संग्राम, नए-जीवन बोध का अनुभव करता है।

निर्देशक: एके बीर

सम्पादन: असीम सिन्हा

संगीत: भवदीप जयपुरवाले

कलाकार: नीरज कवी, सूरत पुजारी, नरेन्द्र मोहन्ती और नीलम मुख़र्जी

पुरस्कार

राष्ट्रीय पुरस्कार - उड़िया में सर्वोत्तम फिल्म


फिल्म समारोह में भागीदारी

11वां सिंगापुर फिल्म समारोह – 1998


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